देवेश प्रताप सिंह राठौर
उत्तर प्रदेश झांसी स्वतंत्रता के बाद के भारत में समाजसेवा के अनेक अध्याय लिखे गए, पर कुछ नाम ऐसे होते हैं जो केवल कार्य नहीं करते, बल्कि समाज को देखने की दृष्टि ही बदल देते हैं। प्रस्तुत व्यक्तित्व उसी श्रेणी में आता है, जिसने समाजसेवा को औपचारिकता नहीं, बल्कि आत्मिक साधना बना दिया। जिनके लिए सेवा कोई आयोजन नहीं, बल्कि जीवन का संकल्प है। जिस देश में आज भी परंपराएँ अक्सर दिखावे तक सीमित रह जाती हैं, वहाँ स्वतंत्रता के बाद पहली बार भव्य स्तर पर तुलसी पूजन का आयोजन कर यह संदेश दिया गया कि हमारी सांस्कृतिक जड़ें आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं। यह आयोजन केवल धार्मिक नहीं था, बल्कि समाज को जोड़ने, नारी सम्मान और पर्यावरण चेतना का प्रतीक भी बना।
हजारों महिलाओं को करोड़ों रुपये की बीमा पॉलिसियाँ दिलवाना कोई साधारण कार्य नहीं है। यह केवल आर्थिक सहायता नहीं, बल्कि भविष्य की चिंता से मुक्ति का भरोसा है। उन बहनों के लिए, जिनके पास न सुरक्षा थी, न संबल यह कार्य एक पिता, एक भाई और एक संरक्षक की भूमिका निभाता है। सैकड़ों बहनों के हाथ पीले कराना केवल विवाह कराना नहीं, बल्कि सामाजिक जिम्मेदारी को निभाना है, उस पीड़ा को समझना है जो आर्थिक अभाव के कारण परिवारों में सालों तक दबा रह जाती है। सबसे मार्मिक और प्रेरणादायी वह क्षण है जब समाज के अंतिम पायदान पर खड़े बाल्मीकि समाज की कन्याओं के पैर पखारकर उन्हें विदा किया गया। यह केवल एक रस्म नहीं, बल्कि सदियों से चले आ रहे भेदभाव पर करारा प्रहार था। यह संदेश था कि सेवा ऊपर से नहीं, झुककर की जाती है; सम्मान भाषणों से नहीं, आचरण से दिया जाता है।
उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात या देश की राजधानी दिल्ली हर स्थान पर मिले विशिष्ट सम्मान इस बात का प्रमाण हैं कि सच्ची सेवा की गूंज सीमाओं में नहीं बंधती। रॉयल अमेरिकन यूनिवर्सिटी से डॉक्टरेट की उपाधि, भामाशाह पुरस्कार, भारत रत्न डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ग्लोबल अवॉर्ड, दुबई में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नई दुनिया एचीवर्स अवॉर्ड और भारत गौरव रत्नश्री ये सभी सम्मान व्यक्ति को नहीं, बल्कि उसकी निःस्वार्थ भावना को प्रणाम हैं।
समाजसेवा का एक और उजला पक्ष तब सामने आता है जब यह व्यक्तित्व असहायों की आँखों को रोशनी देने का कार्य करता है। हजारों लोगों का नेत्र परीक्षण, निःशुल्क चश्मा वितरण और सैकड़ों लोगों के ऑपरेशन ये आँकड़े नहीं, बल्कि उन परिवारों की नई सुबह हैं, जिनकी दुनिया अंधेरे में डूब रही थी। किसी की दृष्टि लौटना, किसी बुजुर्ग का अपने नाती का चेहरा पहली बार साफ़ देख पाना यही सेवा का वास्तविक फल है।
आज जब समाज में स्वार्थ, दिखावा और प्रचार की होड़ मची है, ऐसे में यह समाजसेवी व्यक्तित्व एक जीवित प्रकाश स्तंभ की तरह खड़ा है। ये केवल उजाले की ओर समाज को नहीं ले जा रहे, बल्कि खुद दीप बनकर जल रहे हैं। यही कारण है कि इनकी सेवा प्रेरणा बनती है, उदाहरण बनती है और आने वाली पीढ़ियों के लिए मार्गदर्शन बन जाती है। ऐसे व्यक्तित्व विरले होते हैं, जो समाज को यह सिखा देते हैं कि सेवा कोई पद या पुरस्कार की मोहताज नहीं होती सेवा तो वह होती है, जो किसी असहाय की आँखों में आशा, किसी बहन के जीवन में सुरक्षा और किसी समाज के मन में आत्मसम्मान जगा दे। संघर्ष सेवा समिति के संस्थापक समाजसेवी डॉ. संदीप सरावगी का संपूर्ण जीवन इसी विचारधारा का जीवंत उदाहरण है। यही सच्ची समाजसेवा है, और यही इस युग की सबसे बड़ी आवश्यकता भी।

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