शिक्षा के स्तर पर मंथन जरूरी
चित्रकूट, सुखेन्द्र अग्रहरि । सेंट थॉमस स्कूल में हाल ही में सामने आई घटना ने शिक्षा प्रणाली की धर्मनिरपेक्षता पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं। एक कक्षा 10 के छात्र को केवल जय श्रीराम बोलने पर परीक्षा से रोकने का प्रयास करना न केवल असंवैधानिक है, बल्कि बच्चों के अधिकारों का भी सीधा उल्लंघन है। घटना भारत के संविधान के अनुच्छेद 25 (धार्मिक स्वतंत्रता) और अनुच्छेद 21ए (शिक्षा के अधिकार) का मजाक बनाती है। हालाँकि, स्कूल प्रशासन व प्रिंसिपल ने मीडिया के दबाव और बढ़ते जनाक्रोश के चलते अपनी गलती स्वीकार कर छात्र को परीक्षा में बैठने दिया, लेकिन सवाल यह है कि ऐसी बड़ी गलती कैसे हो सकती है? अगर यह मामला जनता या मीडिया की
फाइल फोटो सेंट थॉमस स्कूल |
नजर में न आता, तो एक मासूम बच्चा शिक्षा से वंचित होकर शोषण का शिकार हो जाता। घटना दर्शाती है कि स्कूलों जैसे शिक्षा के मंदिर भी धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों को समझने और लागू करने में असफल हो रहे हैं। धर्म के नाम पर भेदभाव करने का यह मामला न केवल एक छात्र के मनोबल को तोड़ने वाला है, बल्कि शिक्षा तंत्र के गिरते मूल्यों का भी प्रतीक है। ऐसी घटनाएं समाज में एक गलत संदेश देती हैं और छात्रों के अधिकारों को कमजोर करती हैं। यह केवल एक छात्र की लड़ाई नहीं है यह पूरे शिक्षा तंत्र के लिए एक चेतावनी है। अगर स्कूल प्रशासन को इस प्रकार के भेदभावपूर्ण फैसलों के लिए जवाबदेह नहीं ठहराया गया, तो यह भविष्य में और अधिक गंभीर समस्याओं को जन्म देगा। सेंट थॉमस स्कूल की यह हरकत धर्म और शिक्षा के संतुलन को ध्वस्त करने वाली है। अब वक्त आ गया है कि समाज और प्रशासन इस मामले को एक उदाहरण के रूप में ले और यह सुनिश्चित करे कि भविष्य में ऐसी घटनाएं न हों। शिक्षा के मंदिर को धर्म और राजनीति से दूर रखकर एक ऐसा माहौल तैयार किया जाए जो सभी छात्रों को समान अवसर प्रदान करे। शिक्षा केवल ज्ञान का माध्यम नहीं है, यह स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे का प्रतिनिधित्व भी है। सेंट थॉमस स्कूल की इस हरकत को एक सबक के रूप में लेते हुए शिक्षा प्रणाली को भेदभाव से मुक्त करने को ठोस कदम उठाए जाने चाहिए। स्थानीय शिक्षा विभाग को ऐसे मामलों में एक सख्त नीति अपनानी चाहिए व दोषी संस्थानों के खिलाफ उचित कार्रवाई करनी चाहिए।
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