प्रशिक्षण, सुरक्षा और सामाजिक स्तर पर चुनौतियां सामने आईं
आशाओं की सुरक्षा संबंधी चिंताओं को दूर करना जरूरी
बांदा, के एस दुबे । देहरी पर दवाई की सच्चाई, को लेकर आयोजित राउंड टेबल चर्चा में ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवाओं में डिजिटलीकरण के प्रभाव पर चर्चा की गई। बताया गया कि कैसे डिजिटल उपकरणों ने स्वास्थ्य सेवा की उपलब्धता को बदल दिया है। इसके साथ ही प्रशिक्षण, सुरक्षा और सामाजिक स्तर भी चुनौतियां सामने आई हैं। इस कार्यक्रम में अलग-अलग क्षेत्रों से महत्वपूर्ण वक्ताओं ने भाग लिया, जिसमें आशा कार्यकर्ता, स्वास्थ्य विशेषज्ञ और समाजिक कार्यकर्ता शामिल थे। शबीना मुमताज़ वरिष्ठ संदर्भ समूह सदस्य, मानवाधिकार इकाई ने आशा कार्यकर्ताओं के बारे में बताया कि किस तरह से उन्हें डिजिटल कौशल की कमी की वजह से चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। उन्होंने कहा कि जब आशा के पास डिजिटल कौशल नहीं होता , तो सशक्तिकरण पीछे रह जाता है। इसका प्रभाव उनके आत्म-सम्मान पर पड़ता है। यह बयान इस बात पर ज़ोर देता है कि सही प्रशिक्षण और सहायता की उन्हें कितनी आवश्यकता है ताकि डिजिटल की मदद उन्हें सशक्त बनाया जा सके न कि उन्हें हाशिये पर धकेल दे। महेंद्र कुमार, मित्र बुंदेलखंड संस्था के सामाजिक कार्यकर्ता, ने टेक्नोलॉजी आने के बावजूद जारी सामाजिक समस्याओं पर चर्चा की। उन्होंने कहा कि हालाँकि हम डिजिटल युग में हैं, सामाजिक चुनौतियाँ बनी रहती हैं। जब आशा कार्यकर्ता किसी से फ़ोन पर बात करती हैं, तो पुरुष अभद्र टिप्पणियाँ करते हैं। इस टिप्पणी ने यह बताने की कोशिश की कि तकनीकी उन्नति के साथ-साथ सामाजिक पूर्वाग्रहों को भी दूर किया जाना चाहिए, ताकि महिलाओं को डिजिटल क्षेत्र में उत्पीड़न और शोषण का सामना न करना पड़े।
परिचर्चा में शामिल सामाजिक कार्यकर्ता व अन्य |
डॉ. अर्चना भारती पीएचसी डॉक्टर और काउंसलर ने बताया कि डिजिटल उपकरणों जैसे टेली-मेडिसिन और स्वास्थ्य ट्रैकिंग के इस्तेमाल से सेवाओं के वितरण में महत्वपूर्ण सुधार हुआ है। उन्होंने कहा कि जब आप आशा कार्यकर्ताओं को मोबाइल फोन देते हैं, तो उनका काम आसान हो जाता है। आधुनिकरण स्वास्थ्य विभाग के लिए आवश्यक है, और जैसे-जैसे आशा डिजिटल होती जा रही है, स्वास्थ्य विभाग को भी उसके साथ कदम से कदम मिलाकर चलना चाहिए। हालांकि डिजिटल युग ने कुछ हद तक पहुंच को आसान किया है लेकिन इसके साथ ही प्रशिक्षण में कमियां भी देखी गई हैं, खासकर ग्रामीण स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं के लिए। आरती, एक आशा कार्यकर्ता, ने कहा कि हालाँकि हमें डिजिटल रूप से प्रशिक्षित नहीं किया गया था, हमने ऑनलाइन काम करने के लिए खुद से सीखा। उनकी आत्मनिर्भरता इस बात को उजागर करती है कि आशा कार्यकर्ता कितनी मेहनत करती हैं, लेकिन डिजिटल टेक्नोलॉजी के लाभों को अधिकतम करने के लिए संरचित प्रशिक्षण की आवश्यकता भी है। कई प्रतिभागियों ने यह मुद्दा उठाया कि डिजिटल डेटा संग्रह में मदद के लिए आशा कार्यकर्ताओं को अधिक मजबूत सहायता प्रणालियाँ प्रदान की जानी चाहिए। जब आपको डेटा और सर्वेक्षण की आवश्यकता होती है, तो स्वास्थ्य विभाग को कुशल डिजिटल कर्मचारियों को आशा के साथ भेजना चाहिए। उन्हें आशा को प्रशिक्षित करना चाहिए और साथ ही ऑन-ग्राउंड समर्थन प्रदान करना चाहिए, शबीना जी ने सुझाव दिया। महेंद्र कुमार ने सुझाव दिया कि आशा कार्यकर्ताओं द्वारा इस्तेमाल किए जा रहे ऐप में एक "समस्या-समाधान" फीचर होना चाहिए। वर्तमान में आशा ऐप में समाधान के लिए कोई स्थान नहीं है। हमें इसे सिर्फ डाटा रजिस्ट्रेशन और डिजिटल सीमाओं से बाहर निकालकर इसे मानवता और डिजिटल प्रक्रिया में जोड़ने की जरूरत है। यह सुझाव इस बात को रेखांकित करता है कि तकनीकी विकास के बजाय हमें समाजिक समस्याओं के समाधान पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।
चर्चा का समापन गांव से आई हुई महिला से हुआ, जहां उन्होंने पैनल को बताया कि किस तरह से उनके गांव में पीएचसी और स्वास्थ्य सुविधा न होने की वजह से उनके दो बच्चों की मौत उनके गर्भ में ही हो गई। इसी तरह से चर्चा में शामिल हुए अन्य लगों ने भी अपने सवाल पैनल से साझा किये। इस राउंडटेबल चर्चा ने यह स्पष्ट किया कि तकनीकी उन्नति और सामाजिक बाधाओं के बीच स्वास्थ्य सेवाओं में एक जटिल संतुलन है। डिजिटलीकरण ने सेवाओं की वितरण क्षमता और पहुंच में ज़रूरी सुधार किए हैं, लेकिन यह भी बताया है कि समाजिक पूर्वाग्रह, प्रशिक्षण की कमी और सुरक्षा संबंधी चिंताओं को दूर करना जरूरी है ताकि तकनीकी उन्नति से सभी क्षेत्रों के लोग समान रूप से लाभान्वित हो सकें।
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