प्रतिवर्ष बेंची जाती साठ हजार टन लकड़ी
चित्रकूट, सुखेन्द्र अग्रहरि । जिले के जंगलों से प्रतिवर्ष लगभग 60 हजार टन लकड़ी काटकर बेंची जा रही है। विभागीय अमला कोई कारगर कदम नहीं उठा रहा है। जानकारों का कहना है कि ये सारा कारोबार विभागीय कर्मचारियों की मिलीभगत से हो रहा है। कर्मचारियों की मिलीभगत की बात से डीएफओ ने इंकार किया है। लगभग एक दशक से सूखे की मार झेल रहे चित्रकूट जिले को सूखे से उबारने को शासन ने जल प्रबंधन व वृक्षारोपण के कार्यक्रम चलाए हैं। जिन पर करोड़ों रुपए खर्च हो रहे हैं। जिले के जंगलों का कटान लगातार जारी है। जंगल की लकड़ी गट्ठरों के रूप में ट्रेन मार्ग से महानगरों में रोज जा रही है। बड़े वृक्षों की कटान का अलग इतिहास है। पाठा के टिकरिया, मनगवां, छिवलहा, गुरसराय, मसनहा, बम्भिहा, गोंडा गांव से लगभग 14 टन लकड़ी प्रतिदिन टिकरिया रेलवे स्टेशन से विभिन्न रेलगाड़ियों से महानगरों को बिकने जाती है। पनहाई, मानिकपुर, ओहन, बहिलपुरवा, बराहमाफी, मारकुण्डी तथा टिकरिया रेलवे स्टेशनों से लगभग 53 गांवों के गट्ठर 198 टन की मात्रा में प्रतिदिन इलाहाबाद, झांसी, सतना, कटनी, बांदा, चित्रकूट, कर्वी की ओर जा रहे है। वर्षभर में में तीन सौ दिन माने तो 60 हजार टन लकड़ी हर वर्ष जंगलों से काटी जा रही है।
छीज रहा पाठा का जंगल। |
जिले के जंगलों में अब कुछ खास नहीं बचा है। पेड़ों में जो भी शाखायें सिर उठाती हैं, उन्हें सिर उठाने से पहले काट दिया जाता है। विडम्बना है कि सारा कारोबार वन विभाग, पुलिस विभाग तथा रेलवे विभाग की नजरों में चल रहा है। रोकथाम को कोई ठोस उपाय नहीं किए जा रहे हैं। जिले में गहराते जल संकट को देखते हुए अब जरूरी है कि जलाऊ लकड़ी के नाम पर हो रहे जंगलों की कटान को सख्ती से रोकने को लोगों को आगे आना होगा। आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र में जब भी जंगल के कटान को रोकने की चर्चा उठी, तो इस बात पर अटक गई कि कटान में लिप्त यहां के आदिवासियों के पास रोजी-रोटी का कोई स्थायी उपचार नहीं है। कटान को रोक पाना मुश्किल है। महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारण्टी योजना लागू होने के बाद ये माना जा रहा था कि अब आदिवासियों को रोजगार मिल जाएगा। कटान पर रोक लग जाएगी, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। रोजगार गारण्टी न तो यहां बेकारी से जूझ रहे आदिवासियों को पर्याप्त रोजी रोटी दे पाई और न ही उन्हें जंगलों के कटान से दूर कर पाई।
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